क्या नाम दूँ मैं तुम्हें,
दोस्त, शायद नहीं।
क्योंकि दोस्त तो,
धीरे धीरे बनते हैं।
धीरे धीरे बनते हैं।
लेकिन तुम तो,
एक इत्तेफाक के तहत,
आंधी की तरह
मेरी जिंदगी में आई
और मेरे अस्तित्व को
घटाओं की तरह ढक लिया...
क्या नाम दूँ मैं तुम्हें,
प्रेमिका, शायद नहीं
क्योंकि वो
तुम हो नही सकती।
फिर क्या रिश्ता है
मेरा - तुम्हारा
क्या नाम दूँ मैं तुम्हें।
मेरे ख्याल से
तुम एक कड़ी हो,
दोस्त और प्रेमिका के बीच की।
और हमारा रिश्ता है
विश्वास का।
एक दूसरे के लिए
कुछ कर गुजरने का।
एक दूसरे को
समझने का, सँभालने का।
मुझे लगता है
ये रिश्ता
बेनाम ही रह जाएगा।
क्योंकि समझ नही पा रहा हूँ
क्या नाम दूँ मैं तुम्हें?
- दीपक
28 - Sep - 1999
Good One..but need to bit refined ..this is my opinion only
ReplyDeleteGr8 thought my dear friend, It actually happens with some special people who really fall in love but still in deciding mode :-)
ReplyDeleteGud one boss.........
ReplyDeleteNice poem Deepak.. Beautiful thoughts!!
ReplyDelete=>Thank you all for your valuable feedback.
ReplyDeleteHi Deepak,
ReplyDeleteThis is very creative, thoughtful and an extremely beautiful piece altogether. The emotions have been captured the way the writer has experienced them. Keep up the good work.
=>Urwashi: Thanks sis, you are the only one who can really co-relate and understand the feelings behind poem :)
ReplyDeleteGood one motu
ReplyDeleteHow many tyms I read this ,Feel lyk readn 4 d 1st tym.