Thursday, August 23, 2012

तुम



एक आशा एक विश्वास हो तुम
मेरी अविरल खुशी का एहसास हो तुम
मेरा रोजा मेरा उपवास हो तुम
मेरी प्रार्थना मेरी अरदास हो तुम

मेरे जीवन के उपवन में पलाश हो तुम
कभी न साथ छोड़े वो आस हो तुम
मेरी धडकन मेरी सांस मेरी प्यास हो तुम
मेरी धरती मेरा आकाश हो तुम

अब और क्या कहूँ, क्या मांगूं प्रिये
जब हमेशा के लिए मेरे पास हो तुम.

-दीपक 
17-अगस्त-2012

Sunday, August 14, 2011

मुझे तुम मिल गयी...




कदम बढ़ाऊ या खड़ा रहूँ
स्थिर, अविचल
जैसे खड़ा हूँ एक लम्बे समय से
एक अन्तर्द्वंद सा चल रहा था मन में।

सैकड़ों प्रश्न
विचर रहे थे मस्तिष्क में
एक छोर से दुसरे छोर तक
अनुत्तरित से.

क्या चल सकता हूँ मैं
क्या आगे बढ़ सकता हूँ मैं
गहरी शंका थी, संकोच था
एक कमजोर हो चुके मन में.

याद आया फिर, माँ का आश्वासन
'बेटा सब ठीक है, अच्छा होगा',
मित्रों से मिलती प्रेरणा, बल;
'डरो मत, निकलो, आगे बढ़ो'
निश्चय किया, विश्वास किया
और एक कदम आगे बढाया.

अचानक जैसे धुंध छटने लगी
रोशनी सी फ़ैल गयी मेरे आस पास
और उस रोशनी में पहली बार
दिखाई दी 'तुम'.

एक सरल छवि, मुस्कुराता चेहरा
मद्धम, चपल, बोलती सी आँखें
और उन आँखों के पीछे छुपी
चंचलता, उन्मुक्तता, स्नेह, सरलता.

छोटी से नाक, उसपे चमकता लौंग
कुछ कहने को आतुर अधखुले होठ
उनके पीछे मोतियों से दांतों की
झांकती हुई लड़ी

मैं देख रहा था तुम्हें,
प्रतीक्षारत था के
तुम कुछ बोलो
तुम्हारे होठ हिले और
एक खनकती सी आवाज़ आई
'पहले कुछ खाने को मंगाइए,
भूख लगी है...'
और, मुझे तुम मिल गयी...

हृदय के तार स्पंदित हुए
संवेदनाए जागृत होने लगीं
होठों पे मधुर मुस्कान छा गयी
मेरी तलाश पूरी हुई
मुझे तुम मिल गयी.....

दूर कहीं मंदिर में
पवित्र शंख की नाद
घंटियों की गूँज
और शिवालय के पात्र से टपकते
पवित्र जल की ध्वनि के साथ
रुका हुआ समय चल पड़ा,
अंतर्द्वंद समाप्त हुआ
एक नए युग का प्रारंभ हुआ
मुझे तुम मिल गयी......



-दीपक
१२ & १४ अगस्त २०११

Sunday, July 31, 2011

मेरी दीवाली


प्रदीप्त दीपक में ईधन रूपी तेल की
कुछ आखिरी बूंदें,
चीत्कार कर रही थी,
कोई तो आकर उन्हें बुझने से रोके.

लाल पीली हिलती डुलती सी लौ
कमजोर पड़ती जारही थी
जिसका था इंतज़ार
उसके आने की आस
दम तोडती जारही थी.

मेरी सूनी आंखे टिकी हुई थी
उस टिमटिमाती लौ पे
जो अपने जन्म के समय तेज़ थी,
पूरी दुनिया को समेटने की ताकत रखती थी.
पर इस समय तक
उसका सामर्थ्य इतना क्षीण हो चुका है
के मेरे प्रियतम का इंतज़ार भी नहीं कर सकती.

किन्तु मुझे तो
उसकी प्रतीक्षा करनी है,
और मैं करूँगा भी
क्यों की उसने वादा किया है
दीपक की इस लौ में आने का
मैं अकेला नहीं हूँ
वो मेरे साथ है
ये एहसास दिलाने का .

वो आना भी चाहती है मेरे पास
लेकिन, मुझसे अलग भी उसकी एक दुनिया है
जहाँ उसके लिए अविरल प्रेम बहता है
दोस्त हैं, नातेदार हैं, परिवार है
सबके लिए इसका भी तो कुछ कर्तव्य बनता है..

मुझे भय सिर्फ इतना है
कहीं वो अपनी दुनिया में जा कर
मुझसे किया हुआ वादा भूल न जाए.
मैं जनता हूँ ये मेरा भ्रम है
शायद उसके आने में देरी के कारण...

लेकिन मुझे विश्वास भी है
की वो अवश्य आयेगी
और, मेरी सारी प्रतीक्षा की थकान मिट जाएगी.
बस, मुझे इस लौ को
बुझने नहीं देना है
इसी लौ में वो आयेगी
एक बिम्ब के रूप में ...
और जब वो आयेगी
तभी तो मेरी दिवाली "मंगलमय" होगी....


- दीपक
१ नवम्बर २००५ (दीवाली)

Wednesday, January 12, 2011

गिलास



गिलास हूँ स्टील का,
कभी खाली, कभी पूरा भरा
कभी कम, कभी ज्यादा भरा.

जरुरत के मुताबिक,
भर लेते हैं वो भावनाएँ मुझमे,
फिर वक़्त आने पर
खाली भी कर देते हैं।

किसी को दिखाई नहीं देता,
मेरा खालीपन,
किसी को नहीं दिखता
मेरा पल पल बदलता जीवन.

एक जैसा ही लगता हूँ,
बाहर से हमेशा,
स्टील का हूँ ना!!!
काश कांच का होता,
उन्हें मेरे खालीपन का एहसास तो होता.....



-दीपक

Saturday, October 2, 2010

रुख


यकीं है मुझे तुझपे,
जैसे हवा पे है।
वजूद मानता हूँ
पर शक्ल का अंदाज़ा नहीं।

अहसास जिस्म पे होता है
तेरे गुजरने का,
पर रुख कब, किधर होगा
गुमान नहीं होता।

-दीपक
2- Sep - 09

Saturday, August 7, 2010

मैं मृगतृष्णा, आइना, फिर एक चट्टान


जानता हूँ नहीं दे पा रहा तुम्हें वो प्यार,
वो स्वतंत्रता, वो अधिकार,
जो बना था कभी,
हमारे रिश्ते का आधार॥

एक मृगतृष्णा बन कर रह गया हूँ
और तुम पगली
दूर से मुझे जल समझ बैठी।
अपनी सीमित दुनिया को छोड़ कर,
एक नयी उम्मीद की तलाश में,
लम्बी दूरी तय कर मेरे पास आगई।
फिर मिला क्या?
सूखी, तपती रेत ॥

मैं भ्रमित था,
स्वयं को पहचान न पाया,
तृप्त कर दूंगा तुम्हें,
विश्वास दिलाया।
गलती इतनी है तुम्हारी, तुम चले आये,
मैं, एक बंधन के सिवा कुछ भी न दे पाया।
व्यथित हूँ, निराश हूँ,
अपराधी हूँ तुम्हारा,
मैं भरोसे को तुम्हारे न निभा पाया।

कुछ और...

मैं कोई कांच नहीं,
जिसपे गिर कर,
किरणे आर - पार निकल जाती हैं,
दिखाई देती हैं।
मैं आइना हूँ,
कुछ भी पार नहीं जाता
लौट आता है एक भिन्न कोण से।
कभी तकलीफ देता है लौट के,
कभी भ्रम, कभी शांति तो कभी ख़ुशी
पर ज्यादातर तकलीफ।

इसी आईने में देखते हो तुम खुद को।
एक नयी लकीर नज़र आती है तुम्हें
अपने चेहरे पर
हर तकलीफ के बाद।
और अब तो, इन ढेर सारी लकीरों ने,
एक जाल सा बना दिया है,
जिसमे उलझ कर रह गया है तुम्हारा वजूद ,
सहमा सा, सिमटा सा।
जिम्मेदार हूँ मैं,
तुम्हारी इस हालत का ॥

एक सच....

ये तुम्हारे चेहरे पे जो लकीरें,
तुम्हें नज़र आती हैं,
वो दरअसल आईने में पड़ी दरारें हैं,
जो दिन बा दिन बढती , चौड़ी होती जारही हैं।
जो न तो भरी जा सकती हैं, न ही छुपाई।

इससे पहले की ये आइना टूट के
किरचों में बिखर जाए,
हट जाओ इसके सामने से,
मत देखो खुद को इसमें अब और,
अपने वजूद को बचाओ....

तुम्हारे सामने तो ये बिखर भी नहीं सकता.....

बिखर जाना चाहता है किरचों में,
फिर उन्हें जोड़ कर
चट्टान बन जाना चाहता है।

समंदर के किनारे पड़ा,
फिर एक चट्टान.........



- दीपक
9th-13th April, 2007

Monday, May 3, 2010

रिश्ता


क्या नाम दूँ मैं तुम्हें,
दोस्त, शायद नहीं।
क्योंकि दोस्त तो,
धीरे धीरे बनते हैं।
लेकिन तुम तो,
एक इत्तेफाक के तहत,
आंधी की तरह
मेरी जिंदगी में आई
और मेरे अस्तित्व को
घटाओं की तरह ढक लिया...

क्या नाम दूँ मैं तुम्हें,
प्रेमिका, शायद नहीं
क्योंकि वो
तुम हो नही सकती।

फिर क्या रिश्ता है
मेरा - तुम्हारा
क्या नाम दूँ मैं तुम्हें।

मेरे ख्याल से
तुम एक कड़ी हो,
दोस्त और प्रेमिका के बीच की।
और हमारा रिश्ता है
विश्वास का।
एक दूसरे के लिए
कुछ कर गुजरने का।
एक दूसरे को
समझने का, सँभालने का।
मुझे लगता है
ये रिश्ता
बेनाम ही रह जाएगा।
क्योंकि समझ नही पा रहा हूँ
क्या नाम दूँ मैं तुम्हें?


- दीपक
28 - Sep - 1999