Wednesday, February 10, 2010

अपाहिज


उस शाम जब मैं
अंजान पथिक की तरह
अजनबी से रास्ते पर
अपनी खामोशियों के साथ
मंजिल से कुछ फासले पर,
बढा जा रहा था.

अचानक, दूर बहुत दूर
सूरज की आखिरी किरण के साथ,
एक कंपकंपाता साया नजर आया
उस रात के पहले चरण के साथ.

मुझे लगा,
वोही मेरी मंजिल है,
जिसकी मुझे तलाश थी
येही वो साहिल है.

लेकिन जैसे – जैसे मैं
उस साए की तरफ बढ रहा था,
सूरज की आखिरी किरण के साथ
उस साए का कद भी घट रहा था.

और जब मैं वहां पहुंचा,
मेरी मंजिल मुझसे बहुत दूर जा चुकी थी.
और ढलती रात की अँधेरे की स्याही,
मेरे अस्तित्व पर छा चुकी थी.

चाँद मुस्कुरा रहा था
मेरी बेबसी पर
क्योंकि मैं एक अपाहिज हूँ.
और अपनी मंजिल को
दौड़ कर नहीं पकड़ सकता हूँ,
भगवान के अन्याय के कारण
समाज की सहानुभूति का
और दया का पात्र हूँ.

फिर एक बार मैं तन्हा खड़ा था
एक नए हौसले के साथ
अन्जान पथिक की तरह
अजनबी से रास्ते पर
अपनी खामोशियों के साथ
एक नयी मंजिल की तलाश में…




- दीपक
26 - Oct - 1999

Thursday, February 4, 2010

चट्टान


मैं एक चट्टान हूँ,
दूर - बहुत दूर
क्षितिज तक फैले
सागर के एक
सिरे पर स्थित
मैं एक चट्टान हूँ।

मेरे सामने विस्तृत
सागर की लहरें
मेरे पास आती हैं
मुझे छूती हैं, चूमती हैं
और चली जाती हैं।

लेकिन, मैं न तो
उन्हें रोकता हूँ
न ही कोशिश करता हूँ
उन्हें अपने में समाहित करने की
रेत के उन घरौंदों की तरह
जो उनके
क्षणिक प्रेम पे पड़कर
अपना अस्तित्व
नष्ट कर लेते हैं ...

और मैं अपना अस्तित्व
नष्ट नहीं करना चाहता,
क्यों की,
मैं एक चट्टान हूँ.....

- दीपक
28 - Jul - 1999