Sunday, August 14, 2011

मुझे तुम मिल गयी...




कदम बढ़ाऊ या खड़ा रहूँ
स्थिर, अविचल
जैसे खड़ा हूँ एक लम्बे समय से
एक अन्तर्द्वंद सा चल रहा था मन में।

सैकड़ों प्रश्न
विचर रहे थे मस्तिष्क में
एक छोर से दुसरे छोर तक
अनुत्तरित से.

क्या चल सकता हूँ मैं
क्या आगे बढ़ सकता हूँ मैं
गहरी शंका थी, संकोच था
एक कमजोर हो चुके मन में.

याद आया फिर, माँ का आश्वासन
'बेटा सब ठीक है, अच्छा होगा',
मित्रों से मिलती प्रेरणा, बल;
'डरो मत, निकलो, आगे बढ़ो'
निश्चय किया, विश्वास किया
और एक कदम आगे बढाया.

अचानक जैसे धुंध छटने लगी
रोशनी सी फ़ैल गयी मेरे आस पास
और उस रोशनी में पहली बार
दिखाई दी 'तुम'.

एक सरल छवि, मुस्कुराता चेहरा
मद्धम, चपल, बोलती सी आँखें
और उन आँखों के पीछे छुपी
चंचलता, उन्मुक्तता, स्नेह, सरलता.

छोटी से नाक, उसपे चमकता लौंग
कुछ कहने को आतुर अधखुले होठ
उनके पीछे मोतियों से दांतों की
झांकती हुई लड़ी

मैं देख रहा था तुम्हें,
प्रतीक्षारत था के
तुम कुछ बोलो
तुम्हारे होठ हिले और
एक खनकती सी आवाज़ आई
'पहले कुछ खाने को मंगाइए,
भूख लगी है...'
और, मुझे तुम मिल गयी...

हृदय के तार स्पंदित हुए
संवेदनाए जागृत होने लगीं
होठों पे मधुर मुस्कान छा गयी
मेरी तलाश पूरी हुई
मुझे तुम मिल गयी.....

दूर कहीं मंदिर में
पवित्र शंख की नाद
घंटियों की गूँज
और शिवालय के पात्र से टपकते
पवित्र जल की ध्वनि के साथ
रुका हुआ समय चल पड़ा,
अंतर्द्वंद समाप्त हुआ
एक नए युग का प्रारंभ हुआ
मुझे तुम मिल गयी......



-दीपक
१२ & १४ अगस्त २०११

Sunday, July 31, 2011

मेरी दीवाली


प्रदीप्त दीपक में ईधन रूपी तेल की
कुछ आखिरी बूंदें,
चीत्कार कर रही थी,
कोई तो आकर उन्हें बुझने से रोके.

लाल पीली हिलती डुलती सी लौ
कमजोर पड़ती जारही थी
जिसका था इंतज़ार
उसके आने की आस
दम तोडती जारही थी.

मेरी सूनी आंखे टिकी हुई थी
उस टिमटिमाती लौ पे
जो अपने जन्म के समय तेज़ थी,
पूरी दुनिया को समेटने की ताकत रखती थी.
पर इस समय तक
उसका सामर्थ्य इतना क्षीण हो चुका है
के मेरे प्रियतम का इंतज़ार भी नहीं कर सकती.

किन्तु मुझे तो
उसकी प्रतीक्षा करनी है,
और मैं करूँगा भी
क्यों की उसने वादा किया है
दीपक की इस लौ में आने का
मैं अकेला नहीं हूँ
वो मेरे साथ है
ये एहसास दिलाने का .

वो आना भी चाहती है मेरे पास
लेकिन, मुझसे अलग भी उसकी एक दुनिया है
जहाँ उसके लिए अविरल प्रेम बहता है
दोस्त हैं, नातेदार हैं, परिवार है
सबके लिए इसका भी तो कुछ कर्तव्य बनता है..

मुझे भय सिर्फ इतना है
कहीं वो अपनी दुनिया में जा कर
मुझसे किया हुआ वादा भूल न जाए.
मैं जनता हूँ ये मेरा भ्रम है
शायद उसके आने में देरी के कारण...

लेकिन मुझे विश्वास भी है
की वो अवश्य आयेगी
और, मेरी सारी प्रतीक्षा की थकान मिट जाएगी.
बस, मुझे इस लौ को
बुझने नहीं देना है
इसी लौ में वो आयेगी
एक बिम्ब के रूप में ...
और जब वो आयेगी
तभी तो मेरी दिवाली "मंगलमय" होगी....


- दीपक
१ नवम्बर २००५ (दीवाली)

Wednesday, January 12, 2011

गिलास



गिलास हूँ स्टील का,
कभी खाली, कभी पूरा भरा
कभी कम, कभी ज्यादा भरा.

जरुरत के मुताबिक,
भर लेते हैं वो भावनाएँ मुझमे,
फिर वक़्त आने पर
खाली भी कर देते हैं।

किसी को दिखाई नहीं देता,
मेरा खालीपन,
किसी को नहीं दिखता
मेरा पल पल बदलता जीवन.

एक जैसा ही लगता हूँ,
बाहर से हमेशा,
स्टील का हूँ ना!!!
काश कांच का होता,
उन्हें मेरे खालीपन का एहसास तो होता.....



-दीपक