Saturday, August 7, 2010

मैं मृगतृष्णा, आइना, फिर एक चट्टान


जानता हूँ नहीं दे पा रहा तुम्हें वो प्यार,
वो स्वतंत्रता, वो अधिकार,
जो बना था कभी,
हमारे रिश्ते का आधार॥

एक मृगतृष्णा बन कर रह गया हूँ
और तुम पगली
दूर से मुझे जल समझ बैठी।
अपनी सीमित दुनिया को छोड़ कर,
एक नयी उम्मीद की तलाश में,
लम्बी दूरी तय कर मेरे पास आगई।
फिर मिला क्या?
सूखी, तपती रेत ॥

मैं भ्रमित था,
स्वयं को पहचान न पाया,
तृप्त कर दूंगा तुम्हें,
विश्वास दिलाया।
गलती इतनी है तुम्हारी, तुम चले आये,
मैं, एक बंधन के सिवा कुछ भी न दे पाया।
व्यथित हूँ, निराश हूँ,
अपराधी हूँ तुम्हारा,
मैं भरोसे को तुम्हारे न निभा पाया।

कुछ और...

मैं कोई कांच नहीं,
जिसपे गिर कर,
किरणे आर - पार निकल जाती हैं,
दिखाई देती हैं।
मैं आइना हूँ,
कुछ भी पार नहीं जाता
लौट आता है एक भिन्न कोण से।
कभी तकलीफ देता है लौट के,
कभी भ्रम, कभी शांति तो कभी ख़ुशी
पर ज्यादातर तकलीफ।

इसी आईने में देखते हो तुम खुद को।
एक नयी लकीर नज़र आती है तुम्हें
अपने चेहरे पर
हर तकलीफ के बाद।
और अब तो, इन ढेर सारी लकीरों ने,
एक जाल सा बना दिया है,
जिसमे उलझ कर रह गया है तुम्हारा वजूद ,
सहमा सा, सिमटा सा।
जिम्मेदार हूँ मैं,
तुम्हारी इस हालत का ॥

एक सच....

ये तुम्हारे चेहरे पे जो लकीरें,
तुम्हें नज़र आती हैं,
वो दरअसल आईने में पड़ी दरारें हैं,
जो दिन बा दिन बढती , चौड़ी होती जारही हैं।
जो न तो भरी जा सकती हैं, न ही छुपाई।

इससे पहले की ये आइना टूट के
किरचों में बिखर जाए,
हट जाओ इसके सामने से,
मत देखो खुद को इसमें अब और,
अपने वजूद को बचाओ....

तुम्हारे सामने तो ये बिखर भी नहीं सकता.....

बिखर जाना चाहता है किरचों में,
फिर उन्हें जोड़ कर
चट्टान बन जाना चाहता है।

समंदर के किनारे पड़ा,
फिर एक चट्टान.........



- दीपक
9th-13th April, 2007