Saturday, October 2, 2010

रुख


यकीं है मुझे तुझपे,
जैसे हवा पे है।
वजूद मानता हूँ
पर शक्ल का अंदाज़ा नहीं।

अहसास जिस्म पे होता है
तेरे गुजरने का,
पर रुख कब, किधर होगा
गुमान नहीं होता।

-दीपक
2- Sep - 09

Saturday, August 7, 2010

मैं मृगतृष्णा, आइना, फिर एक चट्टान


जानता हूँ नहीं दे पा रहा तुम्हें वो प्यार,
वो स्वतंत्रता, वो अधिकार,
जो बना था कभी,
हमारे रिश्ते का आधार॥

एक मृगतृष्णा बन कर रह गया हूँ
और तुम पगली
दूर से मुझे जल समझ बैठी।
अपनी सीमित दुनिया को छोड़ कर,
एक नयी उम्मीद की तलाश में,
लम्बी दूरी तय कर मेरे पास आगई।
फिर मिला क्या?
सूखी, तपती रेत ॥

मैं भ्रमित था,
स्वयं को पहचान न पाया,
तृप्त कर दूंगा तुम्हें,
विश्वास दिलाया।
गलती इतनी है तुम्हारी, तुम चले आये,
मैं, एक बंधन के सिवा कुछ भी न दे पाया।
व्यथित हूँ, निराश हूँ,
अपराधी हूँ तुम्हारा,
मैं भरोसे को तुम्हारे न निभा पाया।

कुछ और...

मैं कोई कांच नहीं,
जिसपे गिर कर,
किरणे आर - पार निकल जाती हैं,
दिखाई देती हैं।
मैं आइना हूँ,
कुछ भी पार नहीं जाता
लौट आता है एक भिन्न कोण से।
कभी तकलीफ देता है लौट के,
कभी भ्रम, कभी शांति तो कभी ख़ुशी
पर ज्यादातर तकलीफ।

इसी आईने में देखते हो तुम खुद को।
एक नयी लकीर नज़र आती है तुम्हें
अपने चेहरे पर
हर तकलीफ के बाद।
और अब तो, इन ढेर सारी लकीरों ने,
एक जाल सा बना दिया है,
जिसमे उलझ कर रह गया है तुम्हारा वजूद ,
सहमा सा, सिमटा सा।
जिम्मेदार हूँ मैं,
तुम्हारी इस हालत का ॥

एक सच....

ये तुम्हारे चेहरे पे जो लकीरें,
तुम्हें नज़र आती हैं,
वो दरअसल आईने में पड़ी दरारें हैं,
जो दिन बा दिन बढती , चौड़ी होती जारही हैं।
जो न तो भरी जा सकती हैं, न ही छुपाई।

इससे पहले की ये आइना टूट के
किरचों में बिखर जाए,
हट जाओ इसके सामने से,
मत देखो खुद को इसमें अब और,
अपने वजूद को बचाओ....

तुम्हारे सामने तो ये बिखर भी नहीं सकता.....

बिखर जाना चाहता है किरचों में,
फिर उन्हें जोड़ कर
चट्टान बन जाना चाहता है।

समंदर के किनारे पड़ा,
फिर एक चट्टान.........



- दीपक
9th-13th April, 2007

Monday, May 3, 2010

रिश्ता


क्या नाम दूँ मैं तुम्हें,
दोस्त, शायद नहीं।
क्योंकि दोस्त तो,
धीरे धीरे बनते हैं।
लेकिन तुम तो,
एक इत्तेफाक के तहत,
आंधी की तरह
मेरी जिंदगी में आई
और मेरे अस्तित्व को
घटाओं की तरह ढक लिया...

क्या नाम दूँ मैं तुम्हें,
प्रेमिका, शायद नहीं
क्योंकि वो
तुम हो नही सकती।

फिर क्या रिश्ता है
मेरा - तुम्हारा
क्या नाम दूँ मैं तुम्हें।

मेरे ख्याल से
तुम एक कड़ी हो,
दोस्त और प्रेमिका के बीच की।
और हमारा रिश्ता है
विश्वास का।
एक दूसरे के लिए
कुछ कर गुजरने का।
एक दूसरे को
समझने का, सँभालने का।
मुझे लगता है
ये रिश्ता
बेनाम ही रह जाएगा।
क्योंकि समझ नही पा रहा हूँ
क्या नाम दूँ मैं तुम्हें?


- दीपक
28 - Sep - 1999

Wednesday, February 10, 2010

अपाहिज


उस शाम जब मैं
अंजान पथिक की तरह
अजनबी से रास्ते पर
अपनी खामोशियों के साथ
मंजिल से कुछ फासले पर,
बढा जा रहा था.

अचानक, दूर बहुत दूर
सूरज की आखिरी किरण के साथ,
एक कंपकंपाता साया नजर आया
उस रात के पहले चरण के साथ.

मुझे लगा,
वोही मेरी मंजिल है,
जिसकी मुझे तलाश थी
येही वो साहिल है.

लेकिन जैसे – जैसे मैं
उस साए की तरफ बढ रहा था,
सूरज की आखिरी किरण के साथ
उस साए का कद भी घट रहा था.

और जब मैं वहां पहुंचा,
मेरी मंजिल मुझसे बहुत दूर जा चुकी थी.
और ढलती रात की अँधेरे की स्याही,
मेरे अस्तित्व पर छा चुकी थी.

चाँद मुस्कुरा रहा था
मेरी बेबसी पर
क्योंकि मैं एक अपाहिज हूँ.
और अपनी मंजिल को
दौड़ कर नहीं पकड़ सकता हूँ,
भगवान के अन्याय के कारण
समाज की सहानुभूति का
और दया का पात्र हूँ.

फिर एक बार मैं तन्हा खड़ा था
एक नए हौसले के साथ
अन्जान पथिक की तरह
अजनबी से रास्ते पर
अपनी खामोशियों के साथ
एक नयी मंजिल की तलाश में…




- दीपक
26 - Oct - 1999

Thursday, February 4, 2010

चट्टान


मैं एक चट्टान हूँ,
दूर - बहुत दूर
क्षितिज तक फैले
सागर के एक
सिरे पर स्थित
मैं एक चट्टान हूँ।

मेरे सामने विस्तृत
सागर की लहरें
मेरे पास आती हैं
मुझे छूती हैं, चूमती हैं
और चली जाती हैं।

लेकिन, मैं न तो
उन्हें रोकता हूँ
न ही कोशिश करता हूँ
उन्हें अपने में समाहित करने की
रेत के उन घरौंदों की तरह
जो उनके
क्षणिक प्रेम पे पड़कर
अपना अस्तित्व
नष्ट कर लेते हैं ...

और मैं अपना अस्तित्व
नष्ट नहीं करना चाहता,
क्यों की,
मैं एक चट्टान हूँ.....

- दीपक
28 - Jul - 1999